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मीडिया पर कसता हुआ कारपोरेट का शिकंजा

मुझे अचरज नहीं हुआ जब मुकेश अंबानी के रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने एक बड़े टेलीविजन नेटवर्क को अपने हाथ में ले लिया। ज्यादातर चैनलों- लगभग 300-के मालिक प्रोपर्टी डीलर हैं जो हर महीने औसतन एक करोड़ रुपया खर्च करने में सक्षम हैं, काले धन को सफेद करने का तरीका अपनाते हुए। मुझे जिस बात से धक्का पहुंचा वह यह था कि मीडिया ने सौदे की खबर तो दी लेकिन इसने खामोश रहना पसंद किया। इसके बावजूद कि पत्रकारिता अब एक पेशा नहीं रह गया है और उद्योग बन गया है, मैं कुछ प्रतिक्रिया की उम्मीद कर रहा था, कम से कम एडीटर्स गिल्ड आफ इंडिया से। लेकिन फिर यह समझा जा सकता है क्योंकि एडीटर्स गिल्ड आफ इंडिया ने मेरे इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है कि संपादक भी अपनी संपति घोषित करें जिसकी मांग वे राजनेताओं से करते हैं। दोहरा मापदंड उस ऊंचाई को झूठा बना देता है जिस पर मीडिया बैठा हुआ है। मैं कारपोरेट के मीडिया में पूंजी लगाने के खिलाफ नहीं हूं। बढ़ते खर्च और विज्ञापनों के घटते जाने से मीडिया भुखमरी की स्थिति में है। लेकिन आदर्श यही है कि मीडिया खुद पर निर्भर हो।